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कविता

घिर रही है शाम

राकेश रंजन


ढल रहा है सूर्य
घिर रही है शाम
पर ठहरो
कुछ कहना है तुमसे !

बेचैन पंछी चीखते चकरा रहे हैं
धूसर आकाश में कि अब तक
घास काटने गई किशोरियाँ
नहीं लौटीं
मैदानों से बच्चे, खानों से मजूर
समुद्रों से मछेरे नहीं लौटे
सुबह का निकला हुआ कितना कुछ
शाम तक नहीं लौटा घर !

सिहर रही हैं हवाएँ
काँप रही हैं पत्तियाँ
फूलों के जीवन पर झड़ रहा है
काला पराग !

नदियों तक जानेवाले रास्ते
और जंगलों तक जानेवाले रास्ते
समुद्रों तक जानेवाले रास्ते
और गुफाओं तक जानेवाले रास्ते
सब एक-से लग रहे हैं
हमारे साथ जो चल रहे हैं
वे नर हैं कि नरभक्षी
कुछ नहीं सूझता !

घर और रास्ते
लोग और आवाजें
इतिहास और कथाएँ और स्वप्न...
सब धूसर हो रहे हैं !
धूसर हो रहा है
दुपहर-भर चाँदी के महाकाय फूल-सा
खिला हुआ स्तूप !

शाम गहराएगी, होगी रात
रात चाँद नहीं उगेगा
पर कोई नहीं देखेगा
कि चाँद नहीं उगा है
कोई नहीं सोचेगा
कि चाँद नहीं उगा है
कोई नहीं कहेगा
कि चाँद नहीं उगा है !

ढल रहा है सूर्य
घिर रही है शाम
पर ठहरो
कुछ कहना है तुमसे !
सुन लो
तो जाना !
जाना खतरनाक है अँधेरे में
लौटना तो और भी
फिर भी मैं कहता हूँ -
चीखूँ जब
अंधकार के खिलाफ उठकर पुकारूँ
तो आना !

 


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